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नई कविता(,मृत्यु)—-“जन्म का पल्लू पकड़ साथ चली आती हो”

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नई कविता(,मृत्यु)—-” जन्म का पल्लू पकड़ साथ चली आती हो,धुप पर जीवन की बन साया मंडराती हो,मृत्यु तुम जीवन के साथ ही आती हो.कभी तो असमय ही अनचाहे ,अनजाने,दबे पाऊँ आकर,जीवन से प्राणों को खींच ले जाती हो-नेही के कंठ मैं क्रंदन भर जाती हो,मृत्यु तुम—–ऊब कर कष्टों से कभी अगर चाहें भी,तुम को बुलाएँ भी,एड़ियाँ रगड़ने को,तिल तिल कर जुलने को,छोड़ चली जाती हो,मृत्यु तुम——झुके हुए कंधो को,शिथिल होते अंगो को,झुलसे वार्धक्ये के क्षर होते तन मन को,शीतल चिर निद्रा की गोद दे जाती हो.पाया जो खोना है,-अंत यही होना है फिर काहे रोना है,जीवन क्षण भंगुर है, काया तो नश्वर है,सबको समझाती हो,मृत्यु तुम——–

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