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अचानक सैर करते करते मेरा ध्यान बच्चों के कलरव ने खींचा ,वहाँ बहुत सारे बच्चे पेड़ पर चढ़े थे वो शहतूत का पेड़ था ऊपर चढ़े हुए बच्चे नीचे खड़े बच्चों को सहतूत तोड़ तोड़ कर दे रहे थे और खुद भी खाते जारहे थे.४ साल से मैं रोज़ इस पार्कमें ही सैर करती हूँ काफी पेड़ों को पहचानती हूँ पर उस की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया था पर अब उस में फल लग गया था हरा ,लाल,कला,जैसे अनेक रंग वैसे ही स्वाद भी खट्टा मीठा-स्वादिष्ट अलोकिक.मेरा मन भी ललचा गया .बचपन में लिया हुआ स्वाद मन में हिलोरें लेने लगा.मेरा मन भी ललचा गया उन शातूतों को खाने के लिए. पर मैं किस से मांगूं ,मैं तो बड़ी हो चुकी हूँ न तो अब उन बच्चों की तरह पेड़ पर चढ़ सकती हूँ न ही नीचे वाले बच्चों की तरह बटोर सकती हूँ.पर शहतूत से लदे उस पेड़ ने बचपन की स्मृतियाँ हरी कर दीं
नाना ji का घर 22-२३ बीदोंपुरा करोल बाग़ में था और हर गर्मी की छुट्टी में हम वहां जाते गली के एक सिरे पे थी मशहूर अजमल खान रोड और दूसरी तरफ के सिरे पर एक घर के सामने था एक छानार शहतूत का पेड़ जिस पर गोल गोल काले-लाल खट्टे मीठे शहतूत लगते थे मैं और मेरे भाई रोज़ सुबह ही वहां चले जाते और कभी पेड़ पर चढ़ कर ,कभी पथेर फ़ेंक कर सहतूत तोड़ते बटोरते और खाते और बिना कोई मोल दिए ही उस अलौकिक स्वाद का आनंद लेते.
मैं रोज़ सैर करती और उन खट्टे,मीठे ,रसीले शातूतों का स्वाद याद करके अपनी उम्र के बड़े होने और वर्ग से अह्बिजत्य होने का अफ़सोस करती. वो बच्चे मेरे साने झोली भर भर के शहतूत खाते और ले जाते मैं मन ही मन ताप्ति रह जाती. ऐसे शहतूत बाज़ार में नहीं मिलते ,मिलते हैं तो उनका स्वाद ऐसा नहीं होता( मैने चुपके से एक दो चक लिए थे नीचे से उठा कर लोगों की नज़र बचा कर ). इस बारे में सोचते हुए निकले की जब साद गुण विक्सित होते हैं तो लोग आपको पहचानते हैं,बचपन कितना प्यारा, भोला, मासूम, और दुनिया से बेपरवाह होता है. सभी सुख पैसे से प्राप्त नहीं किये जा सकते गरीब लोगोंऔर बच्चों के अपने ही सुख हैं कोई क्या कहेगा इसकी अधिक परवाह उन्हें नहीं होती.जिन्हें सबकुछ प्लेट में सजा सजाया नहीं मिलता वो भी अपने हिस्से का सु ख अपने पुरुषार्थ से प्राप्त कर सकते हैं.एक और बढ़ी उमर में कई स्वादों को यादों के सहारे लिया जा सकता है.
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