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सुनते हैं जब लैला को नश्तर लगता था तो दर्द मजनू को होता था और जब लोग मजनू को संगसार करते थे लैला बिलबिला कर कह उठती थी कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को.,प्यार में ऐसा ही होता है,दो जिस्म एक जान हो जाते हैं लोग,एक को चोट लगती है तो दर्द दूसरे को होता है -मैं दूसरा कह किसे रही हूँ ,जब मन प्राण एक हो गए तो तो मैं कहाँ ,तुम ही मैं और मैं ही तुम.आप सोच रहे होंगे ऐसा क्या हो गया क्यों बहकी बहकी बाते कर रही हूँ मैं आज मैं कुछ ऐसा ही देख कर आई हूँ जिसने मुझे मजबूर कर दिया की मैं लिखूं —आखिर उन्होंने अग्रवाल साहब का साथ छोड़ ही दिया, पति और बच्चों का असीम प्यार लाखो दुआएं ,लाखों दवाएं ,अस्पतालों के अनगिनत चक्कर,ट्यूबों के जाल में जकड़े हाथ पैर और ऑक्सीजन मास्क से आती सांस कुछ भी नहीं रोक पाया उन्हें.,इस बार घर आई तो बोली अब अस्पताल नहीं जाऊँगी और वैसा ही किया बच्चे छुट्टियाँ बिता कर गए ही थे और वो पति के साथ नाश्ता कर के उठीं और गिर गयीं फिर नहीं उठीं श्रीमती अग्रवाल करीब २० वर्ष से दिल,जिगर और गुर्दों की बिमारी से जूझ रही थी ये पति का प्यार ही था जो उन्हें बिमारी से जूझने की शक्ति प्रदान करता और साथ ही अपनी तीन बेटियों की परवरिश जो उन्हें जीने की ललक से भर देती इतने दर्द के बावजूद.और कालांतर में .एक एक करके तीनों बेटियां अपने घर परिवार की हो गयी. अब रह गए वो दोनों ,एक दूसरे के लिए .खैर वो तो हिम्मती थी ही जब भी थोडा ठीक होती अपने हाथों से व्यंजन बनाती और सब को खिलाती,अच्छे से तैयार होकर रहती लोगों से मिलती जुलती घूमने जाती अभी थोड़े दिन पहले उन्होंने पूरे परिवार के साथ गोवा में कुछ दिन बिताने का कार्य क्रम रखा पर जैसा सब को पता ही था उनकी तबियत ठीक नहीं थी.पर जिजीविषा,जीने के जज्बे में तो कोई कसर नहीं थी.अग्रवाल सब ने अपना जीवन उनकी इच्छाओं ,अभिलाषाओं को पूरा करने या पूरा करने की कोशिश में लगा दिया उनको कब दवा देनी है कब डायलिसिस करना है ,कब वो खाना खायेंगी कब सोयेंगी कब उठेंगी ,सब अग्रवाल साहब ही देखते उनकी देखभाल और उनकी और उनकी सेवाटहल ही अब अग्रवाल साहब का जीने का मकसद था फैक्ट्री भी उन्होंने बंद करदी,ताकि खाना पत्नी की पसंद का बने और समय पर और अपने हाथ से खिलाएं लेकिन इतना सब करने के बाद भी वो आखिर अपनी बीमारी के आगे हार गयी .आज मैं उनकी आँखों उपजा शून्य देख रही हूँ उनकी दिनचर्या ,उनके जीवन की केंद्र थी वो उनके बाद क्या ??एक सवाल उनके आगे मुंह बाए खड़ा है,उनके बच्चे दामाद उन्हें अपने साथ रखेंगे या उनके साथ रहेंगे –पर शून्य तो उनके चारों ऑर व्याप गया है –दो हंसो का जोड़ा बिछुड़ गया है.
एक और उदहारण देने से मैं अपने आप को रोक नहीं पा रही हूँ ,मेरे अपने नाना और नानी जी का,बचपन में हर छुट्टी में हम अपने ननिहाल ही जाते पास ही था गुडगाँव से दिल्ली ,स्वतंत्रता सेनानी थे मेरे नाना जी,उनका अधिकतर जीवन जेलों में या फिर आज़ादी के लिए सत्याग्रह करने में ही बीता,नाना जी हालाँकि प्रोफेसर थे लेकिन सर्विस उन्होंने छोड़ दी और आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े थे.ऐसे में नानी जी ने ही आगे पढाई की और स्कूल में प्रिंसिपल लगी और परिवार का भरण पोषण और और लालन पालन किया .मैं देखती नानी जी सुबह सवेरे भिगोये हुए बादाम सिलबट्टे पर पीसती,और जो सफ़ेद चटनी सी बनती उसे दूध में मिला कर नाना जी को बादाम दूध देती,उनकी पसंद का हल्का भोजन ,दोपहर को ठंडाई वो भी खुद पीसतीं और उन्हें और बाकी लोगों को देती रात का को दूध भी उन्हे अपने हाथ से ही देती.नाना जी बाहर जाते तो उनके कपडे निकालती,उनकी छड़ी टोपी रुमाल और पैसे सब नानी तैयार रखती.उनके साथ आर्य समाज जाती और अन्य सामाजिक गतिविधियों में भाग लेती .कहने का तात्पर्य कि उनका हर क्रियाकलाप नानाजी को केंद्र में रख कर ही था. जब ८९ साल कि दीर्घ आयु में नाना जी कि देह ने उनका साथ छोड़ दिया ,तो नानी जी को समझ ही नहीं आया कि वो अब क्या करें ,क्यूँ करे ,किसके लिए करें अपने लिए जीना तो जैसे भूल ही गयी थी वो. हम सब ने बहुत कोशिश की किसी तरह उनका दिल लगे ,उन्होंने भी की तो होगी ही , पर उनके जीवन का मकसद तो जैसे रहा ही नहीं , उनका जी तो संसार से जैसे उचाट ही हो गया और मुश्किल से एक वर्ष भी नहीं निकाल पायी.सम्पूर्ण समर्पण का एक अनोखा उदहारण था उनका जीवन.
लैला मजनू,सोहनी महिवाल,रोमियो जूलिएट,सस्सी पुन्नू के किस्से तो सब ने सुने और पढ़े हैं और फ़िल्में भी देखी उनपे बनी और ये प्रेम तो अधूरे थे अपनी सम्पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाए थे पर ये प्रेम किसी की नज़रों में शायद नहीं आये होंगे शायद ही कोई जान पाए इन के बारे में सिवा चंद करीबी अपनों के ,पर सछ प्रेम तो यही है जो समय की कसौटी पे खरा उतरा और सुख में तो सुखी रहे ही पर जब दुःख आया तो भी एक दूसरे का हर दुःख आत्मसात किया.
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