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मेरे विचार से कुछ भ्रामक सा है शीर्षक जिस देश में स्त्री स्वयं ही शक्ति स्वरूप है उसे शक्ति कौन देगा !क्या कारण है की जब भी कोई महिला परक गोष्ठी या सम्मेलन होता है तो महिला सशक्तिकरण विषय ज़रूर वाद विवाद या विवेचना का विषय होता है जिस पर अनेक साहित्यिक महारथी अपने अपने विचार रखते हैं !जिस देश में नारी को ही शक्ति स्वरूप माना और जानागयाहै,औरआदिशक्ति,काली,और दुर्गा के रूप में महिमा मंडित किया गया है वहां पर महिला सशक्तिकरण की मांग कुछ विचित्र ही प्रतीत होती है! लेकिन यह भी सत्य है कि पिछली कुछ शताब्दियों में कुछ भ्रामक प्रचारों की वजह से हमारे देश की स्त्री की दशा दीन हीन और तरस खाने योग्य हो गयी !
महिलाओं की स्तिथि में इतना ह्रास हो गया की वो केवल एक भोग्या ,संतानोत्पति का माध्यम और एक अवैतनिक रात दिन की सेविका हो गयी !जिस देश में उसे शक्ति के रूप में पूजा जाता रहा था वहीँ उसकी अस्मिता तार तार करके उसे वंचिता, अबला, और पैर की जूती बनादिया गया !अगर हम पुराने युग की बात करें तो उस समय मात्रकुल की परंपरा थी और संतान को माता के नाम से ही जाना जाता था क्यूंकि लोग समूहों में रहते थे और बहु पत्नी और बहु पति प्रथाओं का प्रचलन था माँ निश्चित थी पर पिता अनुमानित ही होता था (उस समय DNA का अनुसन्धान नहीं हुआ था )स्त्री को समान या फिर ऊंचा दर्जा प्राप्त था क्यूंकि कहीं कहीं तो समूह मात्र्सत्तात्मक थे तो यह परंपरा सही भी थी.रामायण और महाभारत के युग में भी स्त्री को विशेष और सम्माननिय स्थान था ,कोई भी अनुष्ठान उनके बिना अधूरा होता था! लेकिन फिर कुछ ऐसी स्तिथियाँ बनती गयीं की स्त्री को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा क्यूंकि वे रजस्वला होती थी इसलिए उन्हें अपवित्र घोषित कर दिया गया तुलसी की रामायण-में उनकी तुलना ढोर गंवार शुद्र से कर दी गयी ,मनु जी भी इस कार्य में अग्रणी रहे उन्होंने अपने कई विचारों में स्त्री की गरिमा को खंडित किया! कई बारतो ऐसा लगता है की महिलाओं की दयनीय दशा का कारण मनुस्मृति है जिसमे नारी को हेय और निम्न माना गया है! क्यूंकि इन विचारों से पुरुष के अहम की पुष्टि और संतुष्टि होती थी ये बहुत ही लोकप्रिय हो गयी और इनकी सहायता लेकर पूर्ण नारी जाति को प्रताड़ित किया गया,उनके सारे अधिकार छीन लिए शिक्षा से वंचित कर दिया गया ,उनको घर की चारदीवारी में ,घूघट में कैद कर दिया गया और उसकी स्तिथि एक दासी ,वो भी अवैतनिक या फिर वंश वृद्धि का माध्यम बना दिया गया मुघलों के राज में उनकी स्तिथि बाद से बदतर होती चली गयी! स्त्री की कोमल भावनाओ का सहारा लेकर उन्हें और भी निर्बल बना दिया गया यहाँ तक की धर्म और मर्यादा की दुहाई देकर स्त्री के अन्दर ये भावना कूट कूट कर भर दी गयी की वे पुरुषों से हेय हैं ,पुरुषं के बिना चाहे वो पिता हो, भाई हो,पति हो या फिर बेटा उसका न तो निर्वाह है न निर्वाण ! और जिसको खड़ा ही न होने दिया जाए वो अपने पावों से चलेगा क्या ???और नारी सचमुच ही एक लता की भांति हो गयी, कोमल और दुर्बल जो बिना किसी अवलम्ब के तो सिर्फ धरा पर रेंग ही सकती है !बाल विवाह,पर्दा प्रथा दहेज़ प्रथा,सती प्रथा और अशिक्षा कौनसा ऐसा अत्याचार था जो उन्होंने नहीं सहा परन्तु फिर भी इतिहास में कुछ ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा ,वीरता और साहस का परिचय दिया
बिजली की कौन्द सी दमक दिखाती हुई भारत वर्ष के आकाश पटल पर अवतरित हुई मुग़ल काल में रज़िया सुलतान,नूरजहाँ,और जोधाबाई ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शासन किया,जीजाबाई ने वीर शिवा को वीरता का पाठ पढाया ,रानी पद्मिनी,और मीरा बाई ने अलग ही तरह की वीरता दिखाई , १९५७ के अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, और फिर उसके बाद सुभाष की सेना की कप्तान .लक्ष्मी सहगल, दुर्गा भाभी का योगदान हमारी स्वंत्रता की लड़ाई में कौन भूल सकता है ?? और भी न जाने कितनी ही जुझारू स्त्रियाँ हैं जिनका नाम नहीं जाना गया पर वे थी ! इस समय में राजा राम मोहन रॉय और स्वामी दयानंद सरवती का उपकार माने बिना नहीं रह सकती जिन्होंने स्त्री को पुरुष के समकक्ष बनाने की पहल की राजा राम मोहन रॉय ने सती प्रथा के विरूद्ध क़ानून बनवाया और दयानंद जी ने स्त्री शिक्षा और पर्दा प्रथा को समाप्त करवाने की पहल की इन दोनों को महिला सशक्तिकरण का प्रणेता ,पथ प्रदर्शक और युग प्रवर्तक कहा जाए तो अतिशियोक्ति न होगी! आजके युग में महाकवि निराला ,जिन्होंने लिखा तोड़ो तोड़ो करा तोड़ो,और कैफ़ी आज़मी जिन्होंने कहा तुमको मेरे साथ ही चलना होगा –आदि लिख कर महिलाओं को का आह्वाहन किया कि वो मुख्य धारा में आयें अपने बंधनों से मुक्त हों और पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलें !
महिलाओ को भी ये समझना चाहिए की अधिकार मांगने से नहीं मिलते ,अपितु उनके लिए संघर्ष करना ही पड़ता है कोई भी आपको थाली में सजा के उपहार स्वरुप आपके अधिकार नहीं देता ! आज भारत वर्ष में महिलाओ की दशा बहुत सुधरी है ! उन्हें संविधान के द्वारा सभी वो अधिकार प्राप्त हैं जो की किसी पुरुष को!बलिक महिला होने के कारण उन्हें कई विशेष अधिकार भी प्रदत्त हैं परन्तु अभी उनके लिए दिल्ली बहुत दूर है अधिकार जैसे कागजों में ही सिमट गए हैं उनको पाने के लिए बहुत बाधाओं का सामना करना पड़ता है.बहुत सी ऐसी बेड़ियाँ हैंजो उनके माँ बाप ही उनके पैरों में डाल देते हैं,बचपन से उनके अन्दर भर दिया जाता है कि वे त्याग करें,बच्चों का पालन पोषण करें ,माँ बाप,भाई,पति और सास ससुर की सेवा करें जो शील मर्यादाएं धर्म, समाज और घर वालों ने उनके लिए बनाई हैं उनके अन्दर ही रहें और अगर इनसे इतर वो अपने अधिकारों की बात करती हैं तो उन्हें कभी कभी तो जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है और रिश्तों में खटास आना तो लाजिमी है ही क्यूंकि कोई भी भाई,या पिता उन्हें पुत्रों के समक्ष और पति उन्हें अपने समकक्ष मानने को तैयार ही नहीं है !पर जहाँ चाह वहां राह,अपनी दुश्वारिओन को दरकिनार करते हुए बहुत सी महिलाओ ने दिखा दिया है की वो किसी से कम नहीं,भारत के दो शीर्ष पदों राष्ट्र पति,और प्रधान मंत्री पर आसीन रह चुकीं हैं महिलाएं अनेक राज्यों की मुख्यमंत्री,और अनेक क्षेत्रो में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी हैं .आज महिलाऐं शिक्षक होने के अतिरिक्त डॉक्टर,इंजिनियर ,डेंटिस्ट ,पायलट,ट्रेन ड्राईवर,बस ड्राईवर टैक्सी ड्राईवर जैसे भी कार्य कर रही है जहाँ पर पहले पुरुषों का ही वर्चस्व था समय पड़ने पर महिलाओं ने दिखा दिया है की वो रेहड़ी पर सब्जी बेच सकती है और रिक्शा भी चला सकती हैं और अपने बच्चों को पाल सकती हैं !पुरुष घर के बहर नौकरी या व्यापार करके आजीविका अर्जित करके पूरे घरका मुखिया बन जाता था परन्तु स्तरीय घर और बाहर दोनों का कार्य सुचारू रूप से चला लेती हैं.फिर कैसे उन्हें अबला का दर्ज दिया जाता है मेरी समझ से बाहर है !आजकी महिला अपने अधिकारों के प्रति सचेत है!चिंगारी भड़क कर शोला बन चुकी है अब आवश्यकता है इस आग को सही दशा और दिशा देने की स्वतंत्रता के साथ साथ संस्कारों से भी अवगत कराने की और संस्कार तो पुरुषों को भी दिए जाने चाहियें की वे उस नारी जाति का सम्मान करना सीखें जो उन्हें जन्म देती है ,उन्हें पोषित करती है,उनकी प्रथम गुरु होती है! नारी पुरुष की सहगामिनी और सहचरी है आखिर सृष्टि के सुघड़ सञ्चालन में स्त्री और पुरुष दोनों का ही स्नेहमयी संग और समर्पण आवश्यक है दोनों ही बराबर के भागीदार हैं फिर स्त्रियों को हेय क्यूँ बनाया जाए या माना जाए !स्त्रियों की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि क्यूंकि प्रथम गुरु वो ही तो होती हैं बच्चों की तो उन्हें सद्गुण सिखाएं नारी जाती का सम्मान करना सिखाएँ ताकि वे बड़े हो कर समझें की स्त्री और पुरुष दोनों एक दुसरे के पूरक हैं प्रतिद्वंदी नहीं ! इस से पहले की में अपनी लेखनी को विराम दूं अपनी एक कविता द्वारा उनका आह्वाहन करती हूँ—- आज पंहुंची हो जहाँ तुम -वो कोई मंजिल नहीं है
मील का पत्थर है ये इक – अभी तो दूर बहुत दूर तुम्हें जाना है
कई मरहले हैं बहुत फासले हैं ,नहीं कोई मंजिल सिर्फ रास्ते हैं ,
अभी तो दूर ,बहुत दूर तुम्हें जाना है —–
अभी तो है सीखा कि चलते हैं कैसे ,अभी तो हैं खोली सिर्फ बंद आँखें ,
अभी तो डगर की है पहचान बाकी, अभी तो दूर बहुत दूर ——-
वो देखो उधर तुम -है उस पार जाना
कई हैं समंदर , तुम्हें लांघने हैं
उठाओ कदम -बस न बैठो किनारे अभी तो दूर बहुत दूर—— –
ये तैय है बहुत सी दुश्वारियां हैं
समंदर है गहरा औ लहरें हैं ऊंची
उठाएंगी तुमको -कभी पटक देंगी -वादा करो तुम ,
न डरना ,न रुकना न घबराना इनसे
अगर ठान लोगी -लगोगी किनारे
सिखायेंगे सागर – वश में लहर कैसे आती आती .
करें क्या जो आजाये तूफां मुकाबिल
सिखायेंगे कैसे भंवर पार करना .
न बैठो किनारे -सिर्फ लहर गिनती ,उठो थाह लेलो
है कितना गहरा ,ज़रा गहरे उतरो तो मिल जाए मोती .
है हिम्मत तुम्हारी , खुदा निगहेबां है
उठो अब न बैठो ये मंजिल नहीं है
अभी तो दूर बहुत दूर तुम्हें जाना है !
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