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सखि ,लौट रहा वसन्त___
वो देखो तो सही -सखि
लौट रहा है वसन्त शायद,
दबे पाओं उसके आने की
मुझको, आई तो है आहट!
पेडों की टहनिया, सूख गई
थी जो, ठूंठ सी खड़ी,निर्वसन
झर गए जिनसे ,फल ,फूल
और पत्ते- फिर से उन्होने
ओढ ली है देखो चुनर धानी!
सखि वो देखो- लौट रहा है
वसन्त शायद–
कोमल सूचिक्कन नवपल्लव
प्रस्फुटित हो करते
नवजीवन संचरण
यहाँ वहां ,जहाँ तहां
हरियाली हरी हरी
चूम सूर्य राश्मियां
खेत हुए पीले सुनेहरी
दुबके ठे जो पंछी
कोटर से आ बाहर
पंखों को तौलते,
नाटखट गिल्हरी
चंचल चपल घूमती
इधर उधर
लौट रहा है सखि
फिरसे वसन्त शायद
छांट गया है कोहरा,
सिमत गई धुंध की
कोमल धवल चादर
देखो तो सही सखि
लौट रहा है वसन्त शायद
चटकीले रंगों से फूलों ने
रंग दी धरा नीलवरण
नभ ,देखो हो रहा बावरा
वीणा की धुन मधुर
चहुन ओर व्याप्ति
तरंगित ,युवा मन ,उल्लसित
प्रिय से मिलने की प्रतीक्षा
में अन्वरत ,चंचल हैं नयन
धडकन में स्पन्दन है,
पाओं में थिरकन, सुरभित पवन
जगाती देह में स्फुरण ,देखो सखि
लौट आया है वसन्त निश्चित
आओ मनाये मदनोत्सव !
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