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मेरी माँ –मेरी प्रेरणा
मुझे लगता है कि मैं वैसी महिला हूँ जैसा कि एक महिला को होना चाहिए ! हाँ ये सत्य है कि मैंने कोई बड़े सम्मान हासिल नहीं किये पर इस बात का गर्व तो कर ही सकती हूँ कि जो लोग मुझे जानते हैं वो मुझे पसंद करते हैं ,या फिर मेरा सम्मान करते हैं और कई तो मुझे प्यार भी करते हैं !मेरे विचार स्वतंत्र हैं परन्तु फिर भी मई पारिवारिक मूल्यों को महत्व देती हूँ और अपनी ज़रूरतों से पहले अपने परिवार कि ज़रूरतों का ध्यान रखती हूँ और ये मैं अपने मन से करती हूँ !हाँ परन्तु मेरी इन विचारों के पीछे मेरी माँ का बड़ा हाथ है ,उनके दिए संस्कार ही मेरी उपलब्धि हैं!मैं आप को अपनी माँ के बारे में बताना चाहती हूँ देखें किस प्रकार उन्होंने मुझे प्रेरित किया—–
माँ की पहली छवि मेरे मन में अंकित है वो है,आईने के सामने संवरती माँ ,एक आले में रखा छोटा सा नक्काशीदार स्टैंड और फ्रेम वाला आइना जिसमे रखी होती एक चांदी की सिन्दूर दानी और चांदी की ही सुरमे दानी जिसमे थी एक मोरपंख के डिज़ाइन वाली सलाई जिससे वो आंख में सुरमा लगाती ,एक बड़ी सी सिन्दूर की गोल बिंदी लगाती और लम्बे बालों को संवारती मेरी सुंदर सी माँ.लिपस्टिक और नेल पोलिश तो बहुत ही कम लगाती किसी विशेष अवसर पर ही .माँ कितनी सुंदर है में सोचती ,मैं कब बड़ी हूँगी माँ की तरह साडी पहनूगी बिंदी काजल लगाऊँगी.
फिर माँ कपडे धोती,सुबह उठते ही ईंटों वाला आँगन धोती,झाड़ू पोछा रसोई,कूएँ से पानी भरती,हैण्ड पम्प तो पापा ने बाद में लगवाया था.कितना काम करती थी माँ उप्पर से हम ऊपर तले के छोटे छोटे चार बच्चे ,पर सबको तैयार करना स्कूल भेजना.फिर कढ़ाई,बुनाई,सिलाई,क्रोशिया की लेस बनाना,अपने हाथों से सी कर फ्राक,शर्ट,पैंट पहनाना.नए नए डिजाइन डाल कर स्वेटर बनाना.कितना काम कर लेती थी माँ एक दिन में.कभी बिना प्रेस किये कपडे हमें नहीं पहनाये .मेरे पापा भी उनके बारे में कहते “काम की पूरी धुन की पक्की,ऐसी है मेरी पनचक्की.”
माँ की बहुत सी बातें उन दिनों मेरी समझ से परे थी- वो मुझे पढ़ाती अगर मुझे कुछ नहीं आता और मैं उनकी तरफ देखती तो कहती मेरे मुंह को क्या देख रही है मेरे मुंह पर लिखा है क्या.जब मैं बाहर से धूप में खेल कर आती मम्मी कुछ सिलाई कर रही होती तो वो मेरी आँखों की तरफ सूई दिखाकर कहती “ला में फोड़ दूं” मैं सोचती क्या कोई माँ ऐसा कर सकती है ?अगर खेलते खेलते घर में आने में देर हो जाती तो घर आने पर कहती अब भी क्यों आई है जा बाहर जा कर खेल ,कभी कहती इतनी बड़ी हो गयी ये भी नहीं आता कभी कहती अभी तू छोटी है तुझे समझ नहीं आएगी और मुझे समझ में नहीं आता कि मैं बड़ी हूँ कि छोटी, क्या मैं फिर बाहर खेलने चली जाऊं ?पर अब समझ आता है,धूप में खेलने से मेरी आँख दुखनी आजाती थी कुछ बातों के लिए हम छोटे होते थे कुछ के लिए बड़े.अनुशासन रखना बहुत आवश्यक था नहीं तो हम बच्चे तो थे ही शैतान की दुम.
माँ दोपहर को कमरा ठंडा करके हमें अपने साथ पलंग पर सुलाती पर जैसे ही माँ की आँख लगाती हम चुपके से सिटकनी खोल कर सटक लेते और गली मोहल्ले के बच्चों के साथ गुल्ली डंडा,अंटा पिल (कंचों से खेलने वाला खेल ),सिगरेट के पाकिट को गोल घेरे में डाल कर पत्थर से बाहर निकलना ,पिठू गरम और भी नजाने कितने खेल हमने ईजाद किये हुए थे,माँ की साड़ी पहन कर उसका चंदोवा तान कर नाटक खेलते.न हमें गर्मी लगती न चिलचिलाती धूप .हाँ माँ के उठने पर पिटाई तो पक्की थी.
हम्मरे मोहल्ले के कुछ बच्चे गाली देते थे पर हमारे घर में बुरी भाषा का प्रयोग एकदम वर्जित था -मेरे छोटे भाई अगर दूसरे बच्चों की देखादेखी गाली देते तो माँ फट से चिमटा गर्म करके उनके मुंह की तरफ कर के कहती ज़बान खींच लूंगी अगर ये शब्द फिर ज़बान पर लाया तो -और डर काम कर गया,हमारे घर में कभी लड़ाई में भी अभद्र भाषा का का प्रयोग नहीं होता.सब चुप हो जाते हैं.
माँ ने कभी लाड लड़ाया हो ऐसा तो याद नहीं पड़ता पर हाँ हमें साफ़ सुथरा रखना,हमें फल खिलाना,दूध देना नियमित था ,खरबूजा,तरबूज,पपीता आदि अपने हाथों से फांक काट कर देती और फिर छिलके से गूदा निकल कर खुद खाती याफिर नहीं खाती माँ के हाथों में बरकत थी पता नहीं कितना दूध लेती क्यों की हम दूध पीते ,दही खाते,माँ मक्खन बनाती घी निकलती,कभी पनीर बनाती और खुरचन से अपने हाथ पैर मुंह हभी साफ़ करती आज भी उनकी त्वचा नर्म ,मुलायम और सुचिक्कन है -८4 साल की व्यास में.
जब मैं ९ -१० साल की हुई माँ ने मुझे खाना बनाना सिखाना शुरू कर दिया,भाइयों को तैयार करने में मैं उनकी मदद करती सबसे बड़ी और अकेली लड़की थी न मैं .मैं भी स्कूल कॉलेज की गतिविधियों में भाग लेती थी ,वो मुझे हर तरह से सहायता करती और मेरी उपलब्धियों पर प्रसन्न होती .जब तक मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ रही थी मेरे कपडे वोही बनाती,गरारा,शरारा,बेल बोटम ,कुरता पजामा,सलवार सूट यानि सब कुछ.एक से एक नए डिज़ाइन का ड्रेस और अगर मैं किसी बात पर रूठती तो उनके पास एक अमोघ अस्त्र था मुझे मनाने को -एक नयी ड्रेस सी कर देना.मैं माँ से कहती हूँ अगर आप इस ज़माने में होती तो अपने हुनर से कितना पैसा कमा सकती थी.-वो कहती हैं तब भी मैं पड़ोस की औरतों और लड़कियों को सिखा देती थी पर मुफ्त में .
हाँ एक और खासियत माँ की ,उन्हें पढने का बहुत शौक था,जो अब तक कायम है,मेरे और मेरे भाई के कॉलेज पुस्तकालय की सारी कहानिया और उपन्यास पढ़ डाले थे अब मैं अपने सेक्टरके पुस्तकालय से किताबें लेकर उन्हें देती हूँ.यही पढने का चस्का मुझे भी बचपन से ही लग गया था और बहुत से अच्छे२ कहानियां और उपन्यास पढ़ डाले थे मैंने चाहे उस समय उनका अर्थ केवल सतही तौर पर ही समझ आता था.
माँ इस ९ जून को ८4 वर्ष की हो जायेंगी ,मेरे साथ ही रहती हैं माँ और उम्र के लिहाज से काफी चुस्त दुरुस्त .मेरा ,मेरे बच्चों का,और उनके बच्चों का ख्याल रखने को तत्पर ,नन्हे के लिए स्वेअटर,जुराबें और बूटीस इतनी सुंदर बनाती हैं कि मन करता है फिर से बच्चा बन जाऊं मैं.(मैं सिलाई नहीं सीख पाई इसका दुःख लगता है मुझे कभी कभी) माँ कि दिन चर्या सुबह सवेरे शुरू हो जाती है सर्दी हो या गर्मी पहले कपड़े धोना ,नहाना,फिर प्रेस करना,फिर संध्या, और उसके बाद नाश्ता,नाश्ते के साथ और बाद उनकी पढाई ,या फिर हमारे फटे उधडे ,ढीले तंग करने के लिए सिलाई मशीन रख लेती हैं टी वी साथ में चलता रहता है,कभी झपकी आये तो सो लेती हैं- नहींतो किस चनल पर कितने बजे कौन सा सीरियल आता है -एक भी नहीं छूट ता – हाँ अगर कभी काम वाली न आये या नौकर बीमार पड़ जाए -तो झाड़ू ,बर्तन मुश्किल से छुट वाती हूँ -कहेंगी “तू अकेली कितना काम करेगी”?
और अपनी माँ से मैंने भी सीख लिया थोडा बहुत गृहस्थी संभालना ! हाँ उन जैसा फिर भी नहीं
माँ तुम शतायु हो —और तुम्हरे अंग प्रत्यंग हमेशा तुम्हारा साथ देते रहें .तुम्हारे जैसी माँ हर लड़की को मिले !
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