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माँ और मैं —–
माँ –मैं तो हूँ इक अंश भर,
नन्हा सा छोटा सूक्षम अति
तुम्हारे प्रेम का प्रतिमान
तुम्हारी कोख में आकर छिपा
ऐसे कि जैसे सीप में मोती
ऐसे कि जैसे इक प्रकम्पित
लौ ,किसी नन्हे दिये की
माँ— कर दिया स्थिर ओट दे
तुमने निज हथेली की
मैं हूँ सुरक्षित, सिंचित
तुम्हारी रक्त मज्जा से
तुम्हारे हृदय का स्पन्दन
बना है मेरी हर धड़कन
माँ —
तुम में मैं हूँ मुझमे तुम
सोचती हो जो तुम वो ही
सोच मेरी भी बनेगा इसलिये
सोचना तुम सदा ही सच्चा
और सबका अच्छा और भला
सोच कर ही सोचना ताकि
जब मैं जन्म लूँ तो
इक भला मानुष बनू!
माँ —
लेते ही जन्म मुझको
बाँहों में थामती तुम
आंचल की छाँव देती
सीने से लगा लेती
लेकर के सौ बलैया
दूध अपना पिलाती तुम !
माँ—
मैं अपनी नयी आँखों से
देखता स्नेह छलकाता
सुन्दर मुख तुम्हारा
नैनो से टपकता नेह
अधर से रस की धारा
और सो जाता निर्द्वंद
मीठी नींद में मैं मुस्कुराता
माँ —-
मैं कितना भी प्रयत्न करलूं
कभी उऋण ना हूँगा
ना ही इस जन्म में
ना और किसी जन्म
रक्त,दूध स्नेह सोच का
माँ –तुम्हारा ऋण
सदा ही ऋण रहेगा !
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