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परिभाषा प्रेम की——
कैसे परिभाषित करूँ ???
प्रेम तो बस प्रेम है !
दशरथ ,कौशल्या का ,
राम से ,लक्ष्मण का
भरत शत्रुघ्न का
राम से सिया का
शबरी का ,शूर्प नखा का भी
रामसे हनुमान का,
राम से प्रजा का
प्रेम तो बस प्रेम है !
कैसे परिभाषित करूँ ???
राधा का, रुक्मणी का ,
कान्हा से गोपी का ,
सुदामा बलदाऊ का ,
कृष्णा से ,मीरा का ,
प्रेम तो बस प्रेम है !
कैसे परिभाषित करूँ ???
देवकी ,यशोदा का
वासुदेव ,नन्द बाबाका
मुरली मनोहर से ,
गोविन्द गोपाला से
प्रेम तो बस प्रेम है !
कैसे परिभाषित करूँ ???
प्रेम देता प्रेमियों को
साहस असीम ,इतना ,
कि जैसे, दुःसाहस
कि बना लेते है पुल
समंदरों पर , फाड़ कर
सीने पर्बतों के, बहा देते
हैं दरिया प्रेम का !
प्रेम तो बस प्रेम है,
कैसे परिभाषित करूँ???
अजर ,अमर ,अनंत
अनश्वर ,अनिंध्य
ईश्वर हो जैसे
आभासित ,अगोचर
सर्वव्यापी,महक सा
प्रेम तो बस प्रेम है !
कैसे परिभाषित करूँ???
तोड़ देता कारागार
काट देता लौह बंधन
लांघता उफनते सागर
तोड़ता हर वर्जना,
कुछ भी कर सकता है,
क्यूंकि
प्रेम, तो बस प्रेम है!
कैसे परिभाषित करूँ???
माता की ममता का
भार्या से भरता का ,
भ्राता से भ्राता का
मित्र की मित्रता का
प्रेम तो बस प्रेम है!
कैसे परिभाषित करूँ ???
——-ज्योत्स्ना सिंह !
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