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ठाल कूटना —-
कई बार लगता है मुझे की ठालकूटना हम हिंदुस्तानिओं का मनपसंद काम है ,काम इसलिए क्यूंकि हम काम करने की बजाये बस कभी कभी काम करते दिखना चाहते हैं जब कोई देखने वाला दिख जाए वरना तो बस यूँही बैठ बैठ के समय गुज़ार देते हैं ,हाँ बीच बीच में घडी की तरफ ज़रूर देख लेते हैं कि घर जाने का समय हुआ कि नहीं ! ऐसे में एक दो और साथी और हों तो ठाल कूटना और भी आसान हो जाता है कुछ अपनी कहो कुछ मेरी सुनो कुछ आस पास वालों की! क्या करें ये ठाल कूटना भी मजबूरी है जब स्कूल जाते हैं तो मैडम या सर जी नहीं होते ,वो होते हैं तो किताबें नहीं होती और सब होता है तो मन नहीं होता इसलिए बस इधर उधर घूम घाम कर घर वापिस चले जाते हैं ! फिर नौकरी की तलाश में इधर उधर भटकना पड़ता है ,इंटरवियु वाले तो जाते ही वापिस भेज देते हैं अब घर जाओ तो घर वालों की सौ बातें सुनने बेहतर यही लगता है कि किसी पार्क में बैठ कर या सो कर समय काट दिया जाए फिर मुंह लटका कर घर चले जाओ ताकि माँ पुचकार के खाना वाना देदे! पार्क जाओ तो मालियों कि टोली एक जगह बैठी खुरपे लिए एक ही जगह खुट खुट करती दिख जायेगी ! सफाई वाले कर्मचारि भूले भटके कभी गली में पूरी फ़ौज कि शक्ल में अवतरित हो जाते हैं और लम्बी लम्बी हैंडल वाली झहदुओं को सड़क पर एक ही जगह इधर उधर मार कर किसी पेड़ कि छाओं में बैठ जाते हैं कोठी वालियों ठन्डे पानी,चाय,आचार या सब्ज़ी की फरमाइश कर,सुकून से बीड़ी का सुट्टा लगते हुए !अब भाई काम तो रोज़ ही होता है आराम बड़ी चीज़ है ! ये तो MNC वाले हैं जो आदमी का खून निचोड़ लेते हैं सुबह ८ बजे से लेकर रात के ८-९ बजे तक हमारे लिए तो सरकारी नौकरी ही ठीक है ढेर सारी छुट्टियां ,तनख्वा के पैसे अलग ऊपर की कमाई अलग और काम की जगह ठाल- बस कूटते ही रहो !मैंने भी ये लिखा है बस बैठे ठाले !गुस्ताखी माफ़ भाई लोगो!
——ज्योत्स्ना सिंह !
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